भास्कर ओपिनियन:नामांकन पत्र दाखिल करने से उसे वापस लेने तक के दांव

चुनाव चल रहे हैं। हुंकारें भरी जा रही हैं। दहाड़ें सुनाई दे रही हैं। यहाँ- वहाँ। इधर- उधर। तमाम राजनीतिक दलों और उनके सारे नेताओं को सिर्फ़ अपनी पड़ी है। अपनी सीट की। अपनी सत्ता की। अपनी सरकार की। हम क्यों उदास हैं? हमारा उत्साह कहाँ चला गया? किसी को फ़िक्र नहीं है। हमारी खामोशी को सुनने वाला इतने बड़े राजनीतिक बियाबान में कोई नहीं है। कोई भी नहीं। ऊपर से कहा ये जाता है कि दुनिया के इस सबसे बड़े लोकतंत्र को बचाने का ज़िम्मा सिर्फ़ और सिर्फ़ हम पर ही है। हम वोट नहीं करेंगे तो लोकतंत्र का क्या होगा? इस देश का क्या होगा? सही है, लेकिन कोई हमारी चिंता भी तो करे! पाँच साल में एक बार आकर हमेशा हम पर राज करने वाले ये नेता आख़िर हमारी हालत को, हमारी पीड़ा को कब समझेंगे। वो समय कभी आएगा भी या नहीं? जानते हैं - जो सब की घड़ी में बज रहा होता है वह सब के हिस्से का समय तो नहीं ही होता! हम तो हिज्र में, बिछोह में, सड़ते रहने वाले लोग हैं। रूखी रोटी, सूखी चूरी। उम्रें ख़त्म होने लगीं, पर माथे की शिकन जाती ही नहीं। … और ये नेता! इन्हें तो राजनीतिक दल- दल में, दल बदलने, तरह- तरह के सौदे करके नामांकन दाखिल करने और फिर नए तरह के सौदे करके नाम वापस लेने का खेल खेलते रहने से ही फुर्सत नहीं है। बेचारा चुनाव आयोग, पुरानी लीग ऑफ़ नेशन्स की तरह इनके- उनके मुँह ताकने के सिवाय कुछ भी कर नहीं पाता। बहरहाल, राजनीतिक गलियारों में गणित चल निकले हैं। कहाँ से, किसकी, कितनी सीटें कम होने वाली हैं और उसकी भरपाई किस तरह कहाँ से होने वाली है! बाक़ायदा सीटों के गणित बताकर पक्के, पुख़्ता तर्क दिए जा रहे हैं। कोई किसी के तर्क को अपने तर्क पर हावी नहीं होने दे रहा है। तर्कों के बीच झड़पें भी हो रही हैं। मारपीट तक भी बात आ जाती है लेकिन दूसरे दिन फिर वे ही तर्क, वही गणित शिद्दत से समझाए जाते हैं। समय कट रहा है और इस बीच चुनाव का दूसरा चरण यानी 26 अप्रैल का दिन नज़दीक आता जा रहा है। राजनीतिक दलों को कम वोटिंग परसेंटेज को लेकर चिंता सता रही है। ऊँट किस करवट बैठने वाला है यह तो चुनाव परिणाम के दिन, यानी 4 जून को ही पता चलेगा। तब तक मतदान के हर चरण का विश्लेषण इसी तरह होता रहेगा। तर्क- वितर्क चलते रहेंगे। ख़ैर, ख़ुशख़बरी ये है कि गुजरात की सूरत लोकसभा सीट से भारतीय जनता पार्टी ने अपना खाता खोल लिया है। वहाँ भाजपा प्रत्याशी को निर्विरोध निर्वाचित घोषित कर दिया गया है। कांग्रेस के प्रत्याशी का पर्चा निरस्त हो गया था। उसके बाद जितने निर्दलीय प्रत्याशी थे, सबने पर्चा वापस ले लिया। बचे रह गए थे बसपा प्रत्याशी। कांग्रेस ने उन पर अपनी उम्मीद लगाई, लेकिन सोमवार की दोपहर उन्होंने भी पर्चा उठा लिया।

भास्कर ओपिनियन:नामांकन पत्र दाखिल करने से उसे वापस लेने तक के दांव
चुनाव चल रहे हैं। हुंकारें भरी जा रही हैं। दहाड़ें सुनाई दे रही हैं। यहाँ- वहाँ। इधर- उधर। तमाम राजनीतिक दलों और उनके सारे नेताओं को सिर्फ़ अपनी पड़ी है। अपनी सीट की। अपनी सत्ता की। अपनी सरकार की। हम क्यों उदास हैं? हमारा उत्साह कहाँ चला गया? किसी को फ़िक्र नहीं है। हमारी खामोशी को सुनने वाला इतने बड़े राजनीतिक बियाबान में कोई नहीं है। कोई भी नहीं। ऊपर से कहा ये जाता है कि दुनिया के इस सबसे बड़े लोकतंत्र को बचाने का ज़िम्मा सिर्फ़ और सिर्फ़ हम पर ही है। हम वोट नहीं करेंगे तो लोकतंत्र का क्या होगा? इस देश का क्या होगा? सही है, लेकिन कोई हमारी चिंता भी तो करे! पाँच साल में एक बार आकर हमेशा हम पर राज करने वाले ये नेता आख़िर हमारी हालत को, हमारी पीड़ा को कब समझेंगे। वो समय कभी आएगा भी या नहीं? जानते हैं - जो सब की घड़ी में बज रहा होता है वह सब के हिस्से का समय तो नहीं ही होता! हम तो हिज्र में, बिछोह में, सड़ते रहने वाले लोग हैं। रूखी रोटी, सूखी चूरी। उम्रें ख़त्म होने लगीं, पर माथे की शिकन जाती ही नहीं। … और ये नेता! इन्हें तो राजनीतिक दल- दल में, दल बदलने, तरह- तरह के सौदे करके नामांकन दाखिल करने और फिर नए तरह के सौदे करके नाम वापस लेने का खेल खेलते रहने से ही फुर्सत नहीं है। बेचारा चुनाव आयोग, पुरानी लीग ऑफ़ नेशन्स की तरह इनके- उनके मुँह ताकने के सिवाय कुछ भी कर नहीं पाता। बहरहाल, राजनीतिक गलियारों में गणित चल निकले हैं। कहाँ से, किसकी, कितनी सीटें कम होने वाली हैं और उसकी भरपाई किस तरह कहाँ से होने वाली है! बाक़ायदा सीटों के गणित बताकर पक्के, पुख़्ता तर्क दिए जा रहे हैं। कोई किसी के तर्क को अपने तर्क पर हावी नहीं होने दे रहा है। तर्कों के बीच झड़पें भी हो रही हैं। मारपीट तक भी बात आ जाती है लेकिन दूसरे दिन फिर वे ही तर्क, वही गणित शिद्दत से समझाए जाते हैं। समय कट रहा है और इस बीच चुनाव का दूसरा चरण यानी 26 अप्रैल का दिन नज़दीक आता जा रहा है। राजनीतिक दलों को कम वोटिंग परसेंटेज को लेकर चिंता सता रही है। ऊँट किस करवट बैठने वाला है यह तो चुनाव परिणाम के दिन, यानी 4 जून को ही पता चलेगा। तब तक मतदान के हर चरण का विश्लेषण इसी तरह होता रहेगा। तर्क- वितर्क चलते रहेंगे। ख़ैर, ख़ुशख़बरी ये है कि गुजरात की सूरत लोकसभा सीट से भारतीय जनता पार्टी ने अपना खाता खोल लिया है। वहाँ भाजपा प्रत्याशी को निर्विरोध निर्वाचित घोषित कर दिया गया है। कांग्रेस के प्रत्याशी का पर्चा निरस्त हो गया था। उसके बाद जितने निर्दलीय प्रत्याशी थे, सबने पर्चा वापस ले लिया। बचे रह गए थे बसपा प्रत्याशी। कांग्रेस ने उन पर अपनी उम्मीद लगाई, लेकिन सोमवार की दोपहर उन्होंने भी पर्चा उठा लिया।